सरस्वती पूजा में गांव जाने का मौका अब नहीं मिलता, लेकिन यादों में वे पल आज भी जीवित हैं।

सरस्वती पूजा में गांव जाने का मौका अब नहीं मिलता, लेकिन यादों में वे पल आज भी जीवित हैं।

सरस्वती पूजा में गांव जाने का मौका अब नहीं मिलता, लेकिन यादों में वे पल आज भी जीवित हैं। -कपकपाती ठंड में भी हमारा उत्साह कभी कम नहीं होता था। एक तरफ परीक्षा का दबाव, तो दूसरी तरफ पूजा और मौज-मस्ती का आनंद। दस दिन पहले से ही तैयारियां शुरू हो जाती थीं। सीनियर हमसे चंदा वसूलते थे, और जब हम सीनियर बने, तो हमने भी वही किया।

परीक्षा नजदीक होने के बावजूद, यह एक अवसर था जब हम अपनी पढ़ाई से थोड़ा समय निकालकर जीवन का आनंद ले सकते थे। बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा हर छात्र के लिए खास होती थी। चंदा इकट्ठा करना, मूर्ति का बयाना देना, सजावट के सामान की लिस्ट बनाना और पूजा की तैयारी करना – यह सब बड़े जोश और उत्साह के साथ होता था। हमारे शिक्षक भी हमें रोकते-टोकते नहीं थे, क्योंकि उन्हें पता था कि हम यह पूजा पूरे जोश और भक्ति के साथ संपन्न करेंगे।

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इस बार महंगी मूर्ति का बयाना दिया गया था, और 80% बच्चों ने चंदा भी दे दिया था। बाकी 20% भी स्वेच्छा से चंदा दे देते थे। चंदा मांगने और देने में किसी को कोई झिझक नहीं होती थी।

गाजर, शकरकंद, बेर, बुनिया आदि प्रसाद लाने के लिए कई किलोमीटर तक साइकिल चलाकर जाना पड़ता था। पूजा से एक दिन पहले सजावट के दौरान खूब मस्ती होती थी। हममें से कई स्टूडेंट्स “इंजीनियर” हुआ करते थे, जो बताते थे कि किस तरह सजावट करनी है। कुछ प्रमुख लोग होते थे, जिनके निर्देशानुसार सभी काम करते थे, और यह कभी नहीं लगता था कि हम किसी की बात क्यों सुन रहे हैं। बल्कि हमें इस बात की खुशी होती थी कि अगले दिन जब लोग आएंगे, तो हमारे स्कूल, कोचिंग और सजावट की तारीफ करेंगे।

पूजा से एक रात पहले कोई सोता नहीं था, क्योंकि मिशन था – सुबह तक सजावट पूरी करनी है। सभी छात्र नए-नए कपड़े पहनकर आते, लाउडस्पीकर पर भक्ति गीत बजते, और पूरे माहौल में भक्ति और उमंग का संचार होता।

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पूजा समाप्त होने के बाद सभी छात्र खूब मस्ती करते थे, और रात में टीवी पर सीडी लगाकर एक्शन से भरपूर मिथुन चक्रवर्ती की फिल्में देखते थे। हमारे इलाके में आज भी मिथुन को “मिथुनमा” कहा जाता है। फिल्मों के सहारे पूरी रात जागते और सुबह खुद को मिथुन जैसा महसूस करने लगते।

फिर आता विसर्जन का समय, जब ऐसा लगता था मानो दिल का एक टुकड़ा खींचकर ले जाया जा रहा हो। उस वक्त यही ख्याल आता था कि काश पूजा का एक दिन और बढ़ जाता! ठेले पर साउंड बॉक्स के साथ विसर्जन के लिए जाते, चेहरे पर रंग-गुलाल होता, और जमकर नाचते। कई बार हमने अपने शिक्षकों को भी नचाया। उस दिन किसी को किसी से डर नहीं होता था। अंत में, मन छोटा करके विसर्जन कर आते और माता से प्रार्थना करते कि हमारी परीक्षा अच्छे से हो जाए।

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समय बदला, और कब स्टूडेंट लाइफ से 9 से 5 की नौकरी में आ गए, पता ही नहीं चला। अब सरस्वती पूजा में गांव जाने की छुट्टी शायद ही मिलती है, लेकिन उन सुनहरे पलों की यादें आज भी दिल में जिंदा हैं।

जय चन्द्र झा हास्य और व्यंग्य लेखन में माहिर हैं, जिनका इस क्षेत्र में 20 वर्षों का अनुभव है। उनकी रचनाएँ मिथिला की संस्कृति, समाज और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर हास्यपूर्ण व तीखे व्यंग्य के साथ गहरी छाप छोड़ती हैं।
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