जहाँ आप गा सकते हैं किन्तु नाच नहीं सकते

जहाँ आप गा सकते हैं किन्तु नाच नहीं सकते

जहाँ आप गा सकते हैं किन्तु नाच नहीं सकते – मिथिला के लोक जीवन की एक विडंबना है कि यहाँ लोकनृत्य का लगभग अभाव-सा है | विवाह आदि के अवसर पर भी मिथिला में लोक-नृत्य का कोई चलन नहीं है और यह बात हर जाति,हर वर्ग पर लागू होती है | यह अलग बात है की मिथिला के विद्वानों ने संगीत एवं नाटक के साथ-साथ नृत्य पर भी कई शास्त्रीय ग्रन्थ लिखे हैं | प्रतीत होता है कि दरवारों में नृत्य का चलन रहा होगा ,पर लोक में इसकी प्रतिष्ठा न होने के कारण नृत्य समाज में ग्राह्य एवं प्रचलित न बन सका | मिथिला में एक विशेष प्रकार का लोकनृत्य प्रचलित रहा है ,जिसके नर्तक को नटुआ कहते हैं | इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा मिथिला में नहीं है |

मिथिला के लोक जीवन का सबसे रंजक तत्व है लोक गीत |यहाँ इसे गीतनाद कहा जाता है |ये गीत मिथिला में प्रायः समूंहगान के रूप में ही गाये जाते हैं |मिथिला के लोकगीत न सिर्फ मिथिला में , अपितु बंगाल में , आसाम में और उड़ीसा में भी लोक जीवन के अभिन्न अंग हैं | विशेषकर  विद्यापति के पद भाषा एवं प्रांत की सीमा से मुक्त होकर पुरे पूर्वी जनमानस का कंठाभरण  बने दिखते हैं| कहते हैं खान पान की समानताओं के साथ-साथ पूर्वी भारत में जो एक ओर सामान्य तत्व है , वह है विद्यापति |लोकगीत का विस्तार क्षेत्र प्रायः पुरे भारत में एक ही जैसा मिलता है – धार्मिक गीत ,संस्कार गीत , ऋतू सम्बन्धी गीत और स्थानीय विशेषताओं से जुड़े अन्य गीत |मिथिला के भी इन श्रेणियों के गीतों से वहां के लोक जीवन के विषय में महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं |

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शुभ अवसर पर लोकगीतों का सामूहिक गान

जहाँ आप गा सकते हैं किन्तु नाच नहीं सकते
शुभ अवसर पर लोकगीतों का सामूहिक गान

मिथिला में लोककथाओं से ज्यादा प्रचलन लोकगीतों का रहा है | जबतक विवाह आदि संस्कारों का रिवाज बना रहेगा,तब तक लोकगीतों का अस्तित्व रहेगा | भारत में हर शुभ कार्य में वैदिक एवं शास्त्रीय मन्त्रों के साथ-साथ स्थानीय लोकगीतों का गायन भी अनिवार्य होता है | बल्कि , सच्चाई तो यह है की हरेक संस्कार के जितने रिवाज मिथिला में प्रचलित हैं , उन सबसे सम्बद्ध मंत्र उपलब्ध नहीं है, पर हर रिवाज से सम्बद्ध लोकगीत अवश्य मिल जाते हैं | यह बात भारत के लिए हम मान सकते हैं | दरअसल संस्कारों से जुड़े रिवाज लोक-परम्पराओं के ही दुसरे नाम हैं |

कोह्वर और समदाउन गीत

मिथिला में विवाह के गीतों में वर-वधु को राम-सीता के विवाह से जोड़ते हुए प्रायः गीत मिलते हैं | मिथिला में विवाह के लगभग पचास विधान हैं और सबसे सम्बद्ध गीत  हैं | इन विवाह गीतों में संयोग की  पराकाष्ठा कोह्वर में और वियोग की पराकाष्ठा समदाउन गीत जिसे विदाई गीत भी कहते हैं ,में है | कोह्वर-गीत के एक उदाहरण में दुल्हा और दुल्हन को राम और सीता के रूप में निरुपित किया गया है | इसी तरह जब दुल्हन की विदाई होती है , तब विदाई के करुण समदाउन-गीत गाये जाए हैं | ये गीत विदाई के क्षण को और ही करुणामय बना देते हैं |

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कर्णप्रिय गालियों के गीत

इसके अलावा अमौर विवाह गीत , गारि-डहकन गीत , सोहाग गीत , पचीसी गीत , आदि भी मिथिला के विवाहों के विविध विधानों से जुड़े महत्वपूर्ण गीत हैं | अमौर विवाह गीत में विवाह से पहले पेड़ों की विवाह की  प्रतीक पूजा के विश्वव्यापी विधान के उदाहरण मिलते हैं | गारि-डहकन गीत में किसी कुलटा स्त्री को गाली दी जाती है | ये गाली के गीत भी कर्णप्रिय लगते हैं | मिथिला के विषय में कहावत भी है कि वहां कोई  गाली भी मधुर शब्दों में और सुर में ही देता है | ये गाली गीत एक तो कुंठाओं से मुक्त होने के लोक व्यवहार का अंग है ,दुसरे इनके माध्यम से दुल्हन को सीख दी जाती है कि वह पतिव्रत्य धर्म का उल्लंघन न करे , अन्यथा उससे लोकापवाद होता है | सोहाग गीत के दौरान दुल्हन की रिश्तेदार उसके सुहाग की कामना करती हैं  और उसे सिंदूर चढ़ाती है | ऊँची जातियों के विवाह में भी धोबी एवं नाई की स्त्रियाँ दुल्हन की सुहाग भरती हैं और परिवार की स्त्रियाँ गीतों के माध्यम से उनसे दुल्हन के सौभाग्य के लिए कामना करने का आग्रह करती है |

पचीसी खेल गीत

पचीसी-गीत विवाह के बाद एक तरह के शतरंज जैसे खेल खेलने के दौरान गाया जाता है , जिसे पचीसी कहते हैं | यह खेल दुल्हा-दुल्हन के बीच होता है , और कई बार इसके लिए शर्त भी रख दी जाती है ,जो पैसे ,सोना तथा कभी -कभी मजाक में रिश्तों तक हो सकती है | इन विधानों का उद्देश्य नवविवाहित जोड़ों को एक दुसरे को  अनौपचारिक बनाना और करीब लाना है | इस रस्म के दौरान दुल्हन की सखियाँ दुल्हे और दुल्हन के बीच बंट जाती हैं | कई बार यह गीत दुल्हन के ससुराल में पहली बार आने पर ( इसे मिथिला में द्विरागमन कहते हैं ) भी खेला जाता है , उसमें दुल्हे की भाभियाँ सखियों का स्थान लेती हैं |

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जहाँ आप गा सकते हैं किन्तु नाच नहीं सकते

प्रो. शिव चन्द्र झा, के.एस.डी.एस.यू., दरभंगा में धर्म शास्त्र के प्रख्यात प्रोफेसर रहे हैं। उनके पास शिक्षण का 40 से अधिक वर्षों का अनुभव है। उन्होंने मैथिली भाषा पर गहन शोध किया है और प्राचीन पांडुलिपियों को पढ़ने में कुशलता रखते हैं।
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