मिथिला पंचांग – वट सावित्री व्रत 2025 कब है ? तिथि और समय, पूजा अनुष्ठान, और कथा – वट सावित्री व्रत विवाहित हिंदू महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है जिसे पारंपरिक हिंदू कैलेंडर के अनुसार ‘ज्येष्ठ’ महीने में ‘ पूर्णिमा ‘ (पूर्णिमा के दिन) या ‘ अमावस्या ‘ (कोई चाँद नहीं) पर मनाया जाता है । व्रत अनुष्ठान ‘ त्रयोदशी ‘ (13वें दिन) से शुरू होता है और पूर्णिमा या अमावस्या को समाप्त होता है। शास्त्रों में उल्लेख है कि जो महिलाएँ तीन दिन तक उपवास करने में असमर्थ हैं, वे अंतिम दिन एक दिन का व्रत रख सकती हैं।
नारद पुराण में कहा गया है कि वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ अमावस्या और ज्येष्ठ पूर्णिमा दोनों पर मनाया जा सकता है, जिन्हें क्रमशः वट अमावस्या और वट पूर्णिमा कहा जाता है। हालाँकि, स्कंद पुराण में तिथि का उल्लेख ज्येष्ठ पूर्णिमा के रूप में किया गया है, जबकि निर्णयामृत में ज्येष्ठ अमावस्या को व्रत के लिए तिथि बताया गया है।
वट सावित्री व्रत 2025 कब है – वट सावित्री व्रत 2025, 26 मई, सोमवार को है
वट अमावस्या तिथि का समय: 26 मई, दोपहर 12:12 बजे से 27 मई, सुबह 8:32 बजे तक
वट पूर्णिमा व्रत 2025 (ज्येष्ठ पूर्णिमा): 10 जून, मंगलवार
वट सावित्री व्रत का क्या महत्व है?
सनातन धर्म के ग्रंथ ब्रह्मवैवर्त पुराण व स्कंद पुराण के हवाले से बताया है कि वट सावित्री की पूजा व वटवृक्ष की परिक्रमा करने से सुहागिनों को अखंड सुहाग, पति की दीर्घायु, वंश वृद्धि, दांपत्य जीवन में सुख शांति व वैवाहिक जीवन में आने वाले कष्ट दूर होते हैं. पूजा के बाद भक्ति पूर्वक सत्यवान सावित्री की कथा का श्रवण और वाचन करना चाहिए. इससे परिवार पर आने वाली सभी बाधाएं दूर होती है तथा घर में सुख समृद्धि का वास होता है.
विधान पूर्वक होता है पूजा
इस दिन सुहागिन महिलाएं पहले सुबह उठकर स्नान कर नव वस्त्र धारण कर सज धज कर वट वृक्ष के पास पहुंचती है. मिथिला में चरखा से तैयार किए गए सूत के साथ महिलाएं वटवृक्ष की परिक्रमा करती है. ससुराल से भार आता है. लिहाजा नवविवाहिताओं के घर दो दिन पहले से ही उत्सवी वातावरण नजर आ रहा है. इस दिन बांस से बने बेना लेकर विधि-विधान पूर्वक पूजा अर्चना करती हैं. उसके बाद महिलाएं कथा सुनती हैं. बुजुर्ग महिलाएं कथा वाचन करती है. इस दिन आम, लीची व अंकुरित चना के प्रसाद का विशेष महत्व होता है.
वट सावित्री व्रत कथा
वट सावित्री व्रत कथा का वर्णन स्कंद पुराण में है। स्कंद पुराण में देवी सावित्री के पति सत्यवान की मृत्यु हो जाने पर सावित्री द्वारा पति के प्राण वापस लाने की कथा का जिक्र वटसावित्री व्रत कथा में किया गया है। इस कथा के विषय में कहा गया है कि यह कथा सौभाग्य प्रदान करने वाला है। इसलिए वट सावित्री व्रत के दिन वट वृक्ष के नीचे सुहागन स्त्रियों को वट सावित्री व्रत की इस कथा का विस्तार पूर्वक पाठ करना चाहिए और सुहागन महिलाओं को इस कथा को सुनना चाहिए। इससे सुहाग की उम्र लंबी होती है और वैवाहिक जीवन में प्रेम और सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। वट सावित्री व्रत कथा हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण कथा है जो विवाहित महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी आयु और परिवार की सुख-समृद्धि के लिए व्रत के रूप में मनाई जाती है। इस व्रत की कथा का मुख्य पात्र सावित्री और सत्यवान हैं।
देवी पार्वती जी ने कहा- हे देवताओं के भी देवता, जगत के पति शंकर भगवान, प्रभासक्षेत्र में स्थित ब्रह्माजी की प्रिया जो सावित्री देवी हैं, उनका चरित्र आप मुझसे कहिए। जो उनके व्रत का महात्म्य हो और उनके संबंध का इतिहास हो एवं जो स्त्रियों के पतिव्रत्य को देने वाला, सौभाग्यदायक और महान उदय करने वाला हो। तब शंकर भगवान ने कहा कि, हे महादेवी, प्रभासक्षेत्र में स्थित सावित्री के असाधारण चरित्र को मैं तुमसे कहता हूं। हे माहेश्वरि! सावित्री-स्थल नामक स्थान में राजकन्या सावित्री ने जिस प्रकर से उत्तम वटसावित्री व्रत का पालन किया।
मद्र देश मे एक धर्मात्मा राजा रहता था जो सभी प्राणियों के हित में तत्पर रहता था उसका नाम अश्वपति था। धर्मात्मा, क्षमाशील, सत्यवादी होने पर भी राजा संतानरहित था। एक समय वह राजा प्रभास क्षेत्र में यात्रा करते हुए पहुंचा और सावित्री स्थल पर आ गया। वहां पर राजा ने अपनी रानी के साथ इस व्रत को किया जो सावित्री व्रत नाम से प्रसिद्ध सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।
भूभुर्वः स्वः इस मंत्र की साक्षात मूर्ति बनकर स्थिति श्रीब्रह्माजी की प्रिया सावित्री देवी उस राजा पर प्रसन्न हुईं। कमण्डलु को धारण करने वाली वह सावित्री देवी दर्शन देने के बाद पुनः अदृश्य हो गईं। लेकिन देवी के दर्शन के पुण्य से कुछ दिनों बाद राजा अश्वपति के घर देवी के समान रूप वाली कन्या का जन्म हुआ जो देवी सावित्री के अंश से ही उत्पन्न हुई थी। देवी सावित्री की प्रसन्नता से प्राप्त तथा सावित्री की पूजा करने के बाद उत्पन्न कन्या का नाम भी सावित्री रखा गया।
वह राजकन्या देवी लक्ष्मी के समान शोभित होती हुई बढ़ने लगी और धीरे-धीरे सुकोमल अंगों वाली वह कन्या यौवनावस्था को प्राप्त हुई। नगरवासी उस कन्या को देखकर यही समझते थे कि वह कोई देवकन्या है। कमल के समान विशाल नेत्रों वाली एवं तेज से अग्नि के समान प्रज्वलित होती हुई वह सावित्री महर्षि भृगु द्वारा कहे हुए सावित्री व्रत को करने लगी।
लक्ष्मी के समान सुशोभित वह कन्या एक दिन देवी सावित्री की पूजा के बाद पिता पास खड़ी हो गई। उस समय पुत्री की युवावस्था को प्राप्त हुई देखकर राजा ने मंत्रियों से सलाह किया। इसके बाद राजा ने सावित्री से कहा। हे पुत्री! तुम्हें योग्य वर को देने का समय आ गया है। मुझसे कोई तुम्हें मांगने के लिए भी नहीं आता और मैं भी विचार करने पर तुम्हारी आत्मा के अनुरूप वर को नहीं पा रहा हूं। अतः हे पुत्री! देवताओं के निकट मैं जिस तरह से निन्दनीय ना होऊं, वैसा तुम करो। मैंने धर्मशास्त्र में पढ़ा और सुना भी है कि यदि पिता के गृह में रहती हुई विवाह के पहले ही जो कन्या रजोधर्म से युक्त हो जाती है उसके पिता को बड़ा पाप लगता है।
इसलिए हे पुत्री! मैं तुमको भेज रहा हूं कि तुम स्वयं ही अपने योग्य वर ढूंढ लो। वृद्ध मंत्रियों के साथ शीघ्र जाओ और मेरी बात को मानो, इसके बाद ‘जैसा कहते हैं वैसा ही होगा’ ऐसा कहकर सावित्री घर से निकलकर राजर्षियों के साथ तपोवन की ओर चल पड़ी और वहां पहुंचकर माननीय वृद्धजनों को प्रणाम करके सभी तीर्थों और आश्रमों में जाकर पुनः मंत्रियों के साथ सावित्री अपने महल को लौट आईं। यहां सावित्री ने पिताजी के साथ देवर्षि नारदजी को बैठे हुए देखा। आसन पर बैठे हुए नारदजी को प्रणाम करके मुस्कुराती हुई जिस कार्य के लिए वन में गई थी, सारी बातें कहने लगी।
सावित्री बोली- हे नारदजी! शाल्व देश में धर्मात्मा द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक क्षत्रिय राजा हैं, जो दैवयोग से नेत्रहीन हो गए हैं, रुक्मि नामक उनके एक सामंत ने उनसे राजपाट छीन लिया है और वह अपने पुत्र और पत्नी के साथ वन में रह रहे हैं। उनका पुत्र सत्यवादी और धर्मात्मा है उसे ही मैंने मन में पति रूप में वरण किया है।
नारदजी सावित्री के वचनों को सुनकर बोल पड़े हे राजन्! सावित्री ने यह बड़ा कष्टप्रद कार्य कर डाला। बाल बुद्धि होने से इसने केवल गुणवान समझकर सत्यवान् को वरण कर लिया। सत्यवान मिट्टी के घोड़े बनाता है और घोड़े का चित्र भी बनाता है। इससे उसे चित्राश्व भी कहते हैं। सत्यवान दान और गुण में रन्तिदेव के शिष्य के समान है, ब्राह्मणों की रक्षा करने वाला और सत्यवादी है। राजा ययाति के समान उदार, चंद्रमा के समान प्रिय लगने वाला, रूप में दूसरे अश्विनी कुमार के समान और द्युमत्सेन के समान बलवान है, लेकिन उसमें केवल एक दोष है- दूसरा कोई नहीं कि सत्यवान आज से ठीक एक वर्ष पर क्षीणायु हो जाने से देहत्याग कर देगा।
इस प्रकार नारदजी की बात सुनकर राजकन्या सावित्री ने राजा से कहा-
राजा लोग किसी से एक बार कोई बात कहते हैं। ब्रह्मबेत्ता एक ही बार कहते हैं और एक ही बार कन्या दी जाती है। ये तीनों कर्म एक ही बार किये जाते हैं बार-बार नहीं, दीर्घायु हो अथवा अल्पायु, गुणवान हो अथवा निर्गुण, वर को एक ही बार वरण कर लिया। अब दूसरे वर को वरण नहीं करूंगी।
नारदजी ने कहा- हे राजन! यदि आपको उचित लगता हो तो अपनी पुत्री सावित्री का कन्यादान शीघ्र कर डालिये। राजा शुभ मुहूर्त विधि विधान पूर्वक सत्यवान के संग सावित्री का विवाह करवा दिया। सवित्री अपने पति को पाकर ऐसे प्रसन्न थी जैसे उसे पुण्यवान पुरुष स्वर्ग को पाकर प्रसन्न होता है।
सावित्री उस सत्यवान के साथ आश्रम में रहते हुए नारदजी की कही हुई बात को याद करती रहती थी और उस दिन को गिनती रहती थी कि जब सत्यवान देहत्याग कर चले जाएंगे। जब सत्यवान के मरण के केवल तीन दिन शेष रह गए तब सावित्री ने निराहार रहने का व्रत लिया और तीसरे दिन सुबह स्नान करके देवता और पितरों का पूजन किया फिर सास ससुर की चरण वंदना करके वह भी पति के साथ जंगल की ओर चल पड़ी।
जंगल में लकड़ी काटते-काटते अचानक से सत्यवान के सिर में दर्द होने लगा। सावित्री ने कहा कि आप कुछ देर मेरी गोद में सिर रखकर सो जाइए फिर हम आश्रम की ओर चलेंगे। जैसे ही सत्यवान सावित्री की गोद में लेटे वैसे ही सावित्री ने देखा कि सांवले, पिंगलवर्ण वाले, किरीटधारी, पीत वस्त्र पहने हुए, साक्षात सूर्य के समान उदित हुए पुरुष उनके सामने खड़े हैं।
सावित्री ने उन्हें प्रणाम किया और उनसे पूछा कि आप कौन हैं। इस पर यमराज ने कहा कि- मैं सब प्राणियों के लिए भयंकर और कर्मानुसार उनका उचित दण्ड देने वाला यम हूं। सो हे पतिव्रता सावित्री! समीप में पड़े हुए तुम्हारे पति की आयु समाप्त हो गई है। इसे यमदूत पकड़कर नहीं ले जा सकेंगे, इसलिए मैं स्वयं आया हूं।
ऐसा कहकर फांस के लिए हुए यमराज ने सत्यवान के शरीर से अंगुष्ठमात्र शरीर वाले जीवात्मा को बलपूर्वक निकाल लिया। इसके बाद यमपुरी की ओर चलना शुरू किया। सावित्री भी यम के पीछे-पीछे चलने लगी। यमराज ने सावित्री से कहा कि कोई भी जीव बिना आयु समाप्त हुए यममार्ग से नहीं जा सकता।
सावित्री ने यमराज से कहा कि, आप जैसे सज्जन पुरुष के साथ मैं चल रही हूं, मेरे पति आपके साथ हैं तो मुझे आपके साथ चलने में कोई शर्म और ग्लानि नहीं हो रही है। दूसरी बात स्त्रियों के लिए इस पृथ्वी लोक में पति को छोड़कर कोई अन्य स्थान नहीं है। इसलिए मैं आपका अनुगमन कर रही हूं। सावित्री की मधुर बातें सुनकर यम ने कहा कि मैं तुम्हारी बातों से प्रसन्न हूं इसलिए जो इच्छा हो वर मांग लो।
सावित्री ने तब यमराज से अपना खोया हुआ राज्य, सास ससुर की आंखों की रोशनी और सौ पुत्रों का वरदान मांग लिया। अपने वरदान मे जाल में फंसकर यमराज ने सत्यवान की आत्मा को मुक्त कर दिया और सावित्री को लौटा दिया। सावित्री पति के साथ अपने आश्रम लौट आईं। सावित्री ने सावित्री देवी का व्रत किया जिसके प्रभाव से सास-ससुर की आंखों की रोशनी लौट आई। इनका राज्य भी मिल गया और सौ पुत्र हुए।
वट सावित्री पूजा विघि
- शिवजी ने देवी पार्वती से कहा है कि सावित्री व्रत के दिन प्रातः स्नान करके सास ससुर का आशीर्वाद लेना चाहिए।
- वट वृक्ष की समीप बैठकर पंचदेवता और विष्णु भगवान का आह्वान करें।
- तीन कुश और तिल लेकर ब्रह्माजी और देवी सावित्री का आह्वान करें। ओम नमो ब्रह्मणा सह सावित्री इहागच्छ इह तिष्ठ सुप्रतिष्ठिता भव।
- इसके बाद जल, अक्षत, सिंदूर, तिल, फूल, माला, नैवेद्य, पान, अर्पित करें।
- एक आम या अन्य फल लेकर उसके ऊपर से वट पर जल अर्पित करें। यह आम पति को प्रसाद रूप में खिलाना चाहिए।
- कच्चा सूत लपेटते हुए 7 या 21 बार वट वृक्ष की परिक्रमा करें। वैसे 108 बार वट वृक्ष की परिक्रमा को सर्वोत्तम माना गया है।
- इस व्रत का पारण काले चने से करना चाहिए। क्योंकि काले चने के रूप में ही सावित्री को उसके पति के प्राण यमराज ने लौटाए थे।
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