सौराठ सभा – यह मधुबनी जिला के अंतर्गत आता है। मधुबनी से इसकी दूरी मात्र 7 किमी है। यह मधुबनी- जयनगर मुख्य पथ पर है। विदेशी शासन काल में विस्फी ग्राम पर कवियों का अधिकार था। उनका निवास स्थान मिथिला के प्रसिद्ध ग्राम सौराठ था, जो मधुबनी के निकट है। राजा हरिसिंह के शासन काल में प्रतिवर्ष विशाल सभा का आयोजन होता था, जिसमें मैथिली वर-वधू का विवाह संबंधी बातचीत होती थी।
ऐतिहासिक महत्व
प्राचीन विधि-विधान के अनुसार विवाह और सामाजिक व्यवस्था पर प्रकाश डालने के विषय में सौराठ मैथिल समाज का ऐतिहासिक महत्व रखता है। राजा हरिसिंह देव का शासन काल 14 वीं शताब्दी के प्रथम चरण में था। स्थानीय लोगों के अनुसार, यहां लगने वाली वैवाहिक सभा में यदि 1 लाख मैथिल ब्राह्मण एकत्र हो जाते थे, तो वहां पर स्थित पीपल का पेड़ अपने आप झुक जाता था।
परंतु आज के समय में इस सभा की मान्यता समाप्त होने के कगार पर है। लेकिन एक बार फिर मैथिल समाज इसे जीवित बनाने के लिए एकजुट हो रहा है। बिहार सरकार ने इस ग्राम में एक सुंदर धर्मशाला बनवाकर और वहां के मंदिर का जीर्णोद्धार कर दिया है। कवि विधापत्ति को यह ग्राम 15वीं शताब्दी के प्रथम चरण में दान के रूप में मिला था।
स्थानीयॆ लॊगॊ कॆ अनुसार यहाँ लगनॆ वालॆ वैवाहिक सभा मॆ यदि 1 लाख मैथिल ब्राह्मिण एकत्र हॊ जातॆ थॆ तॊ वहाँ पर स्थित पिपल का पॆङ अपनॆ आप झुक जातॆ थॆ |स्थानियॆ लॊगॊ नॆ हमारॆ टिम कॊ बताया की इस गाँव मॆ एक सॊमनाथ महादॆव मन्दिर मॆ दुर्गा पुजा मॆ उनकॆ लटा सॆ गंगाजल निकलता है | यह मन्दिर सभा सॆ कुछ ही दुरि पर स्थित है |
परंपरानुसार, पहले योग्य युवकों को गुरुकुल से सीधे सौराठ सभा में लाया जाता था। इस सभा की शुरुआत मैथिल ब्राह्मणों और कायस्थों के द्वारा की गई थी, जिसमें लाखों लोग एकत्र होते थे। गुरुकुलों में शिक्षित और योग्य युवकों के गुणों को जांचने के बाद, उन्हें अपने पुत्री के लिए उपयुक्त वर समझा जाता था। इसके बाद गुरुजनों से अनुमति ली जाती थी, और विवाह से पहले लड़के के पिता और माताजी के परिवार के 7 पीढ़ियों और 5 पीढ़ियों में किसी भी प्रकार का रक्त संबंध न होने की पुष्टि पंजीकार से करवाई जाती थी।
इसकी पुष्टि के लिए एक “सिद्धांत” तैयार किया जाता था, जिसे एक पत्ते पर मिथिलाक्षर में लाल स्याही से लिखा जाता था। इस काम को पंजीकार स्वर्गीय लक्ष्मी दत्त मिश्र (उर्फ भुट्टू मिश्र) करते थे, जो दरभंगा महाराज के सानिध्य में रहते थे। पंजीकरण की यह परंपरा आज भी मैथिलों में चली आ रही है।
यह वैवाहिक परंपरा पूरे संसार में सबसे श्रेष्ठ मानी जाती है, क्योंकि अधिकार निर्णय की इस अनूठी प्रक्रिया को बाद में विभिन्न वैज्ञानिकों ने सही ठहराया।
पंजी प्रथा
मिथिला (भारत और नेपाल दोनों में) के ब्राह्मण और मैथिल कर्ण कायस्थ समुदायों की लिखित वंशावली को पंजी या पंजी प्रबंध कहते हैं। यह पंजी परंपरा हरिद्वार में प्रचलित हिन्दू वंशावली के समान है।
पंजी प्रथा की शुरुआत सातवीं सदी में हुई थी। इसके तहत लोगों का वंशवृक्ष रिकॉर्ड किया जाता था। विवाह के समय यह ध्यान रखा जाता था कि वर और वधू के परिवारों की सातवीं और छठी पीढ़ी तक उत्पत्ति एक जैसी हो। शुरू में यह जानकारी केवल कंठस्थ होती थी, लेकिन बाद में कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने इसे लिखित रूप में संग्रहित करना शुरू किया। शुरुआती छह-सात सौ वर्षों तक यह प्रक्रिया पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो पाई थी।
1326 ई. में मिथिला के कर्नाट वंशी शासक हरिसिंह देव के समय इसे औपचारिक रूप से लिपिबद्ध किया गया। उन्होंने रघुनंदन राय नामक एक ब्राह्मण को गांव-गांव भेजा, जिन्होंने लोगों से उनके वंशवृक्ष के बारे में जानकारी एकत्र की और उसे लिखा। इसके बाद इसे पीढ़ी दर पीढ़ी अद्यतन किया जाता रहा।
पंजी में 1700 गांवों का उल्लेख है, जिसमें 180 मूल वास स्थान और 1520 स्थानांतरित गांवों के बारे में जानकारी है। हरिसिंह देव के समय, मैथिल ब्राह्मणों के साथ-साथ कुछ अन्य जातियों जैसे कायस्थ, भूमिहार, राजपूत, और वैश्य के पंजी भी बनाए गए थे। लेकिन बाद में अद्यतन न होने के कारण इनका उपयोग विवाह में नहीं हो सका, और अधिकांश पंजी नष्ट हो गईं। अब केवल मैथिल ब्राह्मण और मैथिल कर्ण कायस्थ की पंजी उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग विवाह तय करते समय वंशवृक्ष मिलाने के लिए किया जाता है। बिना मिलान के विवाह में अक्सर विवाद हो जाते हैं।
पंजी प्रथा के शुभारम्भ के विषय मे अत्यंत रोचक कथा ‘जनरल आव द बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसाइटी’ मे किया गया है। पंडित हरिनाथ मिश्र राजा हरिसिंह देव के दरबार में पंडित का काम करते थे। पंडित मिश्र की पत्नी असीम सुन्दरी थी। वह नित्य जंगल मे भगवान शिव की पूजा करने जाती थी। ब्राहम्णी के सौन्दर्य पर एक चाण्डाल की बुरी नजर थी फलतः लोगों में अपवाह फैला दी गई की वह चरित्रहीन है।
इस के कारण उसे समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। पंडित हरिनाथ मिश्र भी भ्रमित हो पत्नी पर शक करने लगे इस पर उनकी पत्नी दुःखी हो राज दरबार में चरित्रवान शाबित होने के लिए हर परीक्षा देने के लिए तैयार हुई। राजा के आदेश पर परीक्षा ली गई । “नाहम् चाण्डाल गामिनी” अर्थात यदि मैं चाण्डाल गामिनी हूँं तो मेरा हाथ जल जाय। इतना कहते ही उसके हाथ जल जाते हैं और इसके बाद सभा में चरित्रहीन कहकर घोषणा की गई। सती इस परीक्षा से संतुष्ट नहीं हुई और पुन: परीक्षा लेने हेतु राजा हरिसिंह देव से गुहार लगायी।
इस बार मंत्र को संशोधन कर “नाहम स्वपति ग्यतिरिक्त चण्डाल गामिनी” कहकर आग पर हाथ को रखा, इस बार हाथ नहीं जला। इस घटना से सभी आश्चर्यचकित हो गए। राजा के आदेश पर विद्वान पण्डितों ने हरिनाथ मिश्र और उनकी पत्नी की कुंडली को मिलाया तो पता चला कि वो दोनो एक ही मूल गोत्र के हैं इसी कारण पण्डित मिश्र चाण्डाल हुए और यह विवाह अपवित्र है। उसी दिन से पंजी व्यवस्था का सूत्रपात किया गया ताकि सगोत्री यानी अपने ही गोत्र के लोगो का आपस में विवाह से बचा जा सके।
वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित है यह सभा
उस समय, जो बातें आज विज्ञान कह रहा है, उन्हें राजा हरिसिंह देव ने लागू करवाया था। उदाहरण के तौर पर, आज के चिकित्सक बताते हैं कि रक्त समूह (ब्लड ग्रुप) की समानता के आधार पर विवाह के संबंध में कई स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं, और सौराठ सभा में इस पहलू को ध्यान में रखते हुए विवाह के संबंध तय किए जाते थे।
सौराठ सभा मिथिला का एक प्रमुख सांस्कृतिक महोत्सव था, जिसमें विवाह के लिए योग्य वर और कन्या का चयन बिना किसी दौड़धूप के एक ही स्थान पर किया जाता था। यह एक सुव्यवस्थित व्यवस्था के रूप में प्रतिष्ठित थी, जिससे विवाह तय करने में आसानी होती थी। यह विश्वास भी था कि सौराठ सभा में विवाह करने वाली कन्या को वैधव्य का दुख नहीं झेलना पड़ता था। पहले सरकारी स्तर पर भी कुछ सहयोग मिलता था, जो अब पूरी तरह से बंद हो चुका है।
आंकड़ों के अनुसार, 1970 तक सौराठ सभा में लगभग 10,000 शादियाँ तय होती थीं। लेकिन आधुनिक सभ्यता और बदलते समय के साथ इसकी रौनक और महत्व में कमी आई है। अब इसे “दहेज मुक्त विवाह” के अभियान के रूप में पुनः व्यवस्था और प्रक्रिया में सुधार की आवश्यकता है, ताकि इसे “विवाह महासमारोह” के रूप में व्यवस्थित किया जा सके। यदि मिथिला के बौद्धिक वर्ग और युवा इसे पुनर्जीवित करने में साहस दिखाते हैं, तो यह ऐतिहासिक विरासत के लिए एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है और बाकी दुनिया के लिए भी अनुकरणीय बन सकता है।
सौराठ सभा का पुनरुत्थान एक ऐतिहासिक कदम साबित हो सकता है, जो मिथिला की संस्कृति को समृद्ध करेगा और समाज में समानता, एकता और प्रेम को बढ़ावा देगा।
सौराठ सभा – साभार – प्रॊ. शिव चन्द्र झा shiv.chandra@themithila.com
लेखक जाने माने संस्कृत भाषा के विद्वान हैंं, तथा दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के सेवानिवृत व्याख्याता हैं ।
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