मिथिला में यह देवी आज भी करती है राजा के छुपे हुए खजाने की रक्षा !

मिथिला में यह देवी आज भी करती है राजा के छुपे हुए खजाने की रक्षा !

मिथिला में यह देवी आज भी करती है राजा के छुपे हुए खजाने की रक्षा ! – 1234 ई. से 1293 ई. तक बंगाल में सेन राजवंश का शासन था। लेकिन जब वहां देवा राजवंश की स्थापना हुई, तो सेन राजवंश के उत्तराधिकारी वहां से पलायन कर मिथिला आ गए।

कैसे आया खजाना?

सेन वंश के एक शासक रत्नसेन के नाम पर ही इस गाँव का नाम रत्नपुर पड़ा, जो कालांतर में बदलकर रतनपुर हो गया। उन्होंने रतनपुर गाँव स्थित दुर्गा मंदिर के पास एक किला बनवाया।

रत्नसेन की कुलदेवी रत्नेश्वरी भगवती थीं, और उनकी कृपा से ही राजा रत्नसेन ने अपनी खोई हुई राजधानी फिर से प्राप्त की थी। मान्यता है कि लक्ष्मी स्वरूपा माँ जगदंबा आज भी राजा रत्नसेन की अकूत संपत्ति, जो यहीं कहीं दबी हुई है, की रक्षा करती हैं।

कैसा है भगवती मंदिर?

रत्नसेन की कुलदेवी रत्नेश्वरी भगवती

जाले प्रखंड के रतनपुर गांव में लगभग 75 फीट ऊंचे टीले पर स्थित मां रत्नेश्वरी का मंदिर सम्पूर्ण मिथिलांचल में “भगवती वैष्णवी दुर्गा पीठ” के रूप में प्रसिद्ध है। यहां की भगवती को लक्ष्मी स्वरूपा दुर्गा माना जाता है।

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इसी कारण सम्पूर्ण मिथिलांचल से भक्त मां के दर्शन और पूजा-अर्चना के लिए यहां आते हैं। शारदीय और वासंती नवरात्र के अवसर पर मां की पूजा वैष्णवी पद्धति से संपन्न होती है।

विशेषता यह है कि मंदिर में बलिप्रदान की प्रथा नहीं है। मां की प्रतिमा के स्थान पर यहां उनकी “पिंडी स्वरूप” विद्यमान है, जिसे भक्तजन पूजते हैं।

सच्चे मन से उनके दरबार में आने वाले भक्त कभी खाली हाथ नहीं लौटते। जाले प्रखंड क्षेत्र का यह स्थान मिथिला राज्य काल में ओईनवर वंशीय राजा रत्नसेन सिंह की धरती हुआ करती थी, जिनकी कुल देवी रत्नेश्वरी भगवती थी। उनकी कृपा से ही राजा रत्नसेन सिंह ने खोई राजधानी दोबारा प्राप्त करने में सफलता हासिल की थी।

अंकुरित होने के कारण यहां वैदिक मंत्रोच्चारण से सालों भर इनकी पूजा की जाती है। समस्त रतनपुर, ब्रह्मपुर के निवासी रत्नेश्वरी भगवती को अपना कुलदेवी मानते हैं। शारदीय एवं चैत्री नवरात्रि में इनकी विशेष रूप से पूजा होती है। नवरात्रा के दौरान यहां पुरुष, महिला और बच्चे को दंड प्रणाम करते हुए दृश्य देखते ही बनता है। इस संबंध में ज्योतिषाचार्य अलख नारायण कुमर जी ने बताया कि भगवान श्रीकृष्ण मोरध्वज के दरवाजे पर जांचने के लिए भेष बदलकर आए। अर्जुन को सिंह रूप में बदल दिया। उसने मोरध्वज से कहा कि तुम पति-पत्नी अपने हाथों से अपने पुत्र को चीर कर अपने सामने मैं हमारे सिंह को भोजन कराओ। दोनों ने उनकी उनकी बात को सहज स्वीकार करते हुए अपने पुत्र को आरी से चीरकर सिंह को भोजन कराने के लिए गया। तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने असली रूप में आकर उन को वरदान दिया। उनके पुत्र भी जीवित हो गए, जो आगे चलकर राजा रत्नसेन हुए। उन्हीं के मठ पर आज रत्नेश्वरी मां दुर्गा भगवती अवस्थित है।

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प्रो. शिव चन्द्र झा, के.एस.डी.एस.यू., दरभंगा में धर्म शास्त्र के प्रख्यात प्रोफेसर रहे हैं। उनके पास शिक्षण का 40 से अधिक वर्षों का अनुभव है। उन्होंने मैथिली भाषा पर गहन शोध किया है और प्राचीन पांडुलिपियों को पढ़ने में कुशलता रखते हैं।
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