यज्ञोपवीत मंत्र – जनेऊ मंत्र – वाजसनेयि यज्ञोपवीत मंत्र – छन्दोग जनेऊ मंत्र

यज्ञोपवीत मंत्र - जनेऊ मंत्र - वाजसनेयि यज्ञोपवीत मंत्र - छन्दोग जनेऊ मंत्र

यज्ञोपवीत मंत्र – जनेऊ मंत्र – वाजसनेयि यज्ञोपवीत मंत्र – छन्दोग जनेऊ मंत्र – यज्ञोपवीत विशेष विधि से ग्रंथित किया जाता है और इसमें सात ग्रंथियाँ होती हैं। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। इस तीन सूत्रों वाले यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है, जो हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर इसे बदल लिया जाता है और बिना धारण किए अन्न जल ग्रहण नहीं किया जाता।

यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र: वाजसनेयी

वाजसनेयीनाम् (जो शुक्लयजुर्वेद के वाजसनेयी-माध्यन्दिनीय-शाखाध्यायि हैं उनका)
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।।

(पारस्कर गृह्यसूत्र, ऋग्वेद, २/२/११)

यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र: छन्दोग (सामवेद के कौथुमशाखाध्यायियोँ का)

ॐ यज्ञो पवीतमसि यज्ञस्य त्वोपवीतेनोपनह्यामि।।

यज्ञोपवीत उतारने का मन्त्र:

एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया।
जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्।।

जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है।

हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत जनेऊ पहनी जाती है, जिसमें ‘यज्ञोपवीत धारण’ के नियमों का पालन अनिवार्य होता है। उपनयन का अर्थ है “सन्निकट ले जाना”, अर्थात ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और इसके नियमों का पालन करना। हालांकि, हर हिन्दू जनेऊ नहीं पहन सकता; केवल तीन वर्णों को ये अधिकार दिया गया है। शुद्र वर्ण को इससे वंचित रखा गया है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ और स्वाध्याय का अधिकार मिलता है, द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म।

जनेऊ का आध्यात्मिक महत्व:

जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं, जो त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश, देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण, और सत्व, रज और तम के प्रतीक हैं। यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों और तीन आश्रमों के भी प्रतीक हैं। जनेऊ के एक तार में तीन-तीन तार होते हैं, जो कुल मिलाकर नौ होते हैं। ये हमारे नौ द्वारों – मुख, नासिका, आंख, कान, मल और मूत्र – का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनेऊ में पांच गांठें होती हैं, जिन्हें प्रवर कहते हैं, जो ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक हैं।

जनेऊ की लंबाई और लाभ:

जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है, जिससे धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए।

प्रत्यक्ष लाभ: जनेऊ बाएं कंधे से दायीं कमर तक पहनते हैं और मल-मूत्र विसर्जन के दौरान इसे दाहिने कान पर चढ़ाते हैं। इससे स्वच्छता बनाए रखने में मदद मिलती है और संक्रमण का खतरा कम होता है।

अप्रत्यक्ष लाभ: जनेऊ पहनने से शरीर के 365 एनर्जी पॉइंट्स को एक्युप्रेशर मिलता है, जिससे विभिन्न बीमारियों में राहत मिलती है।

जनेऊ संस्कार का महत्व: यज्ञोपवीत मंत्र – जनेऊ मंत्र – वाजसनेयि यज्ञोपवीत मंत्र – छन्दोग जनेऊ मंत्र

  1. जनेऊ दूसरा जन्म माना गया है।
  2. उपनयन संस्कार से ज्ञान के नेत्र प्राप्त होते हैं।
  3. जनेऊ धारण करने से पूर्व जन्मों के बुरे कर्म नष्ट होते हैं।
  4. आयु, बल, और बुद्धि में वृद्धि होती है।
  5. शुद्ध चरित्र और जप, तप, व्रत की प्रेरणा मिलती है।
  6. नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों का आत्मबल मिलता है।
  7. तीन धागे माता-पिता की सेवा और गुरु भक्ति का कर्तव्य बोध कराते हैं।
  8. बिना यज्ञोपवीत संस्कार के विद्या प्राप्ति, पाठ, पूजा या व्यापार करना अर्थहीन है।
  9. जनेऊ के तीन धागों में नौ लड़ होते हैं, जिससे नौ ग्रह प्रसन्न रहते हैं।
  10. बालकों का संस्कार सही समय पर होना चाहिए।

यज्ञोपवीत मंत्र – जनेऊ मंत्र – वाजसनेयि यज्ञोपवीत मंत्र – छन्दोग जनेऊ मंत्र – साभार – प्रॊ. शिव चन्द्र झा shiv.chandra@themithila.com

लेखक जाने माने संस्कृत भाषा के विद्वान हैंं, तथा दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के सेवानिवृत व्याख्याता हैं ।

यज्ञोपवीत मंत्र – जनेऊ मंत्र – वाजसनेयि यज्ञोपवीत मंत्र – छन्दोग जनेऊ मंत्र – FAQ

यज्ञोपवीत (जनेऊ) क्या होता है?

यज्ञोपवीत, जिसे जनेऊ भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में एक पवित्र सूत्र होता है जिसे उपनयन संस्कार के तहत धारण किया जाता है। यह तीन सूत्रों वाला होता है और ब्रह्म, विष्णु, महेश के प्रतीक रूप में पहना जाता है।

यज्ञोपवीत के अन्य नाम क्या हैं?

इसे उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है।

जनेऊ में कितने सूत्र होते हैं और उनका क्या महत्व है?

जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं, जो निम्नलिखित के प्रतीक हैं:
त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश)
तीन ऋण (देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण)
तीन गुण (सत्व, रज, तम)
गायत्री मंत्र के तीन चरण
तीन आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ)

जनेऊ की लंबाई कितनी होती है और इसका क्या महत्व है?

जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है, जो 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने के प्रयास का प्रतीक है।

जनेऊ धारण करने की परंपरा किन लोगों के लिए अनिवार्य है?

हिंदू धर्म में केवल तीन वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) के पुरुषों को जनेऊ धारण करने का अधिकार प्राप्त है। शूद्र वर्ण को इससे वंचित रखा गया है।

जनेऊ में कितनी ग्रंथियाँ होती हैं और उनका क्या महत्व है?

जनेऊ में सामान्यतः सात ग्रंथियाँ होती हैं, जिनमें ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में विशेष रूप से ब्रह्मग्रंथि होती है। ये ग्रंथियाँ ब्रह्म, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक होती हैं।

जनेऊ पहनने के क्या लाभ हैं?

आध्यात्मिक लाभ: यह व्यक्ति को ज्ञान, भक्ति और कर्तव्य की ओर अग्रसर करता है।
शारीरिक लाभ: इसे दाहिने कान पर चढ़ाने से स्वच्छता बनी रहती है और संक्रमण का खतरा कम होता है।
ऊर्जा संतुलन: शरीर के 365 एनर्जी पॉइंट्स को एक्युप्रेशर मिलता है, जिससे स्वास्थ्य में सुधार होता है।

क्या बिना जनेऊ के अन्न-जल ग्रहण किया जा सकता है?

परंपरागत रूप से, बिना यज्ञोपवीत धारण किए अन्न-जल ग्रहण करना अनुचित माना जाता है।

जनेऊ पहनने के बाद किन कार्यों की अनुमति मिलती है?

जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ, स्वाध्याय और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने का अधिकार मिलता है।

जनेऊ को दाहिने कान पर क्यों चढ़ाया जाता है?

मल-मूत्र त्यागते समय जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ाने से पाचन और मलोत्सर्जन की प्रक्रिया में सुधार होता है और शरीर में ऊर्जा संतुलन बना रहता है।

जनेऊ से जुड़े प्रमुख धार्मिक ग्रंथ कौन-कौन से हैं?

यज्ञोपवीत की महिमा विभिन्न ग्रंथों में मिलती है, जैसे:
पारस्कर गृह्यसूत्र
ऋग्वेद
सामवेद (कौथुमशाखा)
यजुर्वेद (वाजसनेयी माध्यंदिन शाखा)

यज्ञोपवीत संस्कार का आधुनिक जीवन में क्या महत्व है?

आज भी यह संस्कार नैतिकता, अनुशासन और आत्मसंयम की शिक्षा देता है, जिससे व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहता है।

क्या बिना यज्ञोपवीत संस्कार के विद्या प्राप्ति संभव है?

परंपरागत रूप से, बिना यज्ञोपवीत संस्कार के विद्या प्राप्ति, पाठ, पूजा या व्यापार को अर्थहीन माना जाता है।

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प्रो. शिव चन्द्र झा, के.एस.डी.एस.यू., दरभंगा में धर्म शास्त्र के प्रख्यात प्रोफेसर रहे हैं। उनके पास शिक्षण का 40 से अधिक वर्षों का अनुभव है। उन्होंने मैथिली भाषा पर गहन शोध किया है और प्राचीन पांडुलिपियों को पढ़ने में कुशलता रखते हैं।
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