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उच्चैठ भगवती

उच्चैठ भगवती

उच्चैठ भगवती मधुबनी के बेनीपट्टी थाना क्षेत्र में स्थित है। यहाँ देवी दुर्गा का एक प्राचीन और विशाल मंदिर है। इस गाँव में देवी दुर्गा का एक अनोखा मंदिर है, जहाँ बिना सिर वाली मूर्ति स्थित है। इसे उच्चैठ भगवती के नाम से जाना जाता है और पौराणिक कथाओं में देवी को बनदेवी के नाम से संबोधित किया गया है। मान्यता है कि कई प्राचीन ऋषि, जैसे महर्षि कपिल, कणाद, गौतम, जैमिनी, पुंडरीक और लोमस, हिमालय की यात्रा या मिथिला की राजधानी जनकपुर जाते समय उच्चैठ से होकर गुज़रे थे। यह स्थान आध्यात्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व रखता है।

उच्चैठ भगवती का ऐतिहासिक महत्व

उच्चैठ भगवती

भगवती दुर्गा के इस मंदिर का ऐतिहासिक महत्व है। एक पौराणिक कथा के अनुसार, यहाँ महान कवि कालिदास निवास करते थे। कहा जाता है कि कालिदास पहले महा मूर्ख थे।

उस समय राजा सदानंद एक प्रसिद्ध राजा थे। उनकी पुत्री विधोत्तमा सुंदर और गुणवान थी। विधोत्तमा ने विवाह के लिए आए अनेक राजाओं से शादी करने से मना कर दिया और यह प्रण किया कि वह केवल उसी से विवाह करेगी जो उससे अधिक गुणवान होगा। इससे अपमानित हुए राजाओं के पंडितों ने बदला लेने की ठानी और एक महा मूर्ख की खोज में लग गए।

एक दिन उन्होंने एक भेड़ चराने वाले व्यक्ति को देखा, जो जिस डाल पर बैठा था, उसी को काट रहा था। पंडितों ने सोचा कि इससे बड़ा मूर्ख और कोई नहीं हो सकता। उन्होंने विधोत्तमा की शादी कालिदास से करा दी। जब विधोत्तमा को इसका पता चला तो उसने कालिदास का अपमान किया।

अपमान से आहत होकर कालिदास उच्चैठ पहुँचे। यहाँ आकर उन्होंने विद्या अर्जन की और माँ दुर्गा के आशीर्वाद से महान कवि बन गए।

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कालिदास को मां उच्चैठ भगवती को आशिर्वाद

यह मान्यता है कि उच्चैठ मंदिर के पूर्व दिशा में एक प्राचीन संस्कृत पाठशाला थी, जिसके बीच एक अधवारा समुह की नदि प्रवाहित होती है । कालिदास, अपनी विदुषी पत्नी विद्योत्तमा द्वारा अपमानित होने के बाद उच्चैठ आ पहुँचे और उसी विद्यालय के आवासीय छात्रों के लिए भोजन तैयार करने का कार्य करने लगे।

एक दिन, नदी में भीषण बाढ़ आ गई, और छात्रों के लिए मंदिर में संध्या दीप जलाना असंभव हो गया। तब उन्होंने महामूर्ख समझकर कालिदास को आदेश दिया कि वह दीप जलाने जाए और मंदिर से कोई निशानी लाए ताकि यह सिद्ध हो सके कि उसने कार्य पूरा किया।

कालिदास बिना कुछ सोचे-समझे नदी में कूद पड़े। डूबते-तैरते, किसी तरह मंदिर पहुँचे और दीप जलाया। पूजा के बाद, निशानी के रूप में उन्होंने जलते दीपक की कालिख अपने हाथ पर लगा ली। लेकिन निशान के लिए कुछ और नहीं मिलने पर, उन्होंने माँ भगवती के निर्मल मुखमंडल पर ही कालिख लगा दी। प्राचिन काल में मां भगवति का प्रतिमा अखंड था मान्यता है की इसे मुस्लिम आक्रांत-कारीयों अथवा अंगरेजो के द्वारा तोडा गया है ।

तभी देवी प्रकट हुईं और बोलीं, “रे मूर्ख कालिदास, इतने बड़े मंदिर में तुम्हें कोई और स्थान नहीं मिला? और इस बाढ़ और बारिश में जीवन जोखिम में डालकर तुम यहाँ आए हो। यह मूर्खता है या भक्ति, मैं नहीं जानती, लेकिन मैं तुम्हें वरदान देना चाहती हूँ।”

देवी ने उनकी कहानी सुनने के बाद उन्हें वरदान दिया, “आज रात तुम जो भी पुस्तक छुओगे, वह तुम्हें कंठस्थ हो जाएगी।”

कालिदास ने लौटकर पुस्तकालय की सारी पुस्तकें स्पर्श कीं और आगे चलकर महान कवि बने। उन्होंने अभिज्ञान शाकुंतलम, कुमारसंभव, मेघदूत जैसी रचनाएँ कीं।

आज भी वह नदी, पाठशाला के अवशेष जो की वर्तमान में कालिदास विज्ञान महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है , और मंदिर मौजूद हैं। मंदिर परिसर से पुर्व में कालिदास के जीवन से संबंधित चित्र अंकित हैं।

आज भी लोग अपने धार्मिक कार्यों में इस जगह की धरती के कुछ अंश लेकर जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस धरती के अंश के कारण उनके घर में भी माँ दुर्गा के आशीर्वाद से लोग कालिदास की तरह विद्वान बनते हैं।

उच्चैठ भगवती तथा दरभंगा महाराज का संबध

दरभंगा महाराज धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से मिथिला क्षेत्र के संरक्षक माने जाते थे। उनकी आस्था उच्चैठ भगवती में बहुत गहरी थी। यह मंदिर मिथिला क्षेत्र में शक्ति साधना का प्रमुख केंद्र था, और महाराज की धार्मिक यात्राओं में यह स्थान प्रमुखता से शामिल होता था।

स्थानिये लोगो कहानी के अनुसार, एक बार दरभंगा महाराज ने उच्चैठ भगवती की प्रतिमा को अधिक सुंदर और भव्य बनाने का संकल्प लिया। महाराज ने कुशल कारीगरों को बुलाकर नया मस्तक बनवाने का आदेश दिया।

जब नया मस्तक बनकर तैयार हुआ और उसे प्रतिमा से जोड़ने के लिए शुभ मुहूर्त तय किया गया, तो उस रात माँ भगवती स्वयं महाराज के सपने में प्रकट हुईं। माँ ने कहा:

“मैं सम्पूर्ण ब्रह्मांड की माता हूँ। समस्त जीव-जगत मेरे मस्तक से जुड़ा हुआ है। तेरा यह प्रयास यह दर्शाता है कि तू मेरे अस्तित्व को नहीं समझ पाया।

इस स्वप्न के बाद महाराज ने माँ भगवती के आदेश का पालन किया। उन्होंने तुरंत नया मस्तक लगाने का विचार त्याग दिया और माँ भगवती की प्रतिमा को उसी रूप में रहने दिया। महाराज ने यह मान लिया कि माँ भगवती का स्वरूप ईश्वरीय है और उसे बदलने का अधिकार किसी को नहीं है।

तंत्र-साधना के लिए है मशहूर

उच्चैठ दुर्गास्थान को शक्तिपीठों में गिना जाता है लिहाजा यहाँ तांत्रिक सिद्धियों के लिए भी आते हैं। मंदिर के पास जो तालाब है, उसके आसपास कभी शमसान हुआ करता था। आज भी तंत्र साधक यहाँ आकर तप करते हैं। लोगों की मानें तो इस जगह पर अदृश्य शक्तियों का निवास है जिसे आसानी से महसूस किया जा सकता है। कई देशी-विदेशी श्रद्धालु यहाँ पूजा करने आते हैं। नवरात्र के दौरान यहाँ की चहलपहल देखने लायक रहती है। ऐसे समय आपको तांत्रिक घूमते दिख जाएँगे।

कैसे पहुंचे उच्चैठ भगवती

. टैक्सी या कैब से:

  • दरभंगा एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही प्राइवेट टैक्सी या कैब बुक कर सकते हैं।
  • उचैठा की दूरी दरभंगा एयरपोर्ट से लगभग 50-55 किलोमीटर है, और यह यात्रा लगभग 1.5 से 2 घंटे में पूरी हो सकती है।
  • रास्ता: दरभंगा → मधुबनी → बेनीपट्टी → उचैठा।

2. बस से:

  • एयरपोर्ट से दरभंगा बस स्टैंड तक ऑटो या टैक्सी लें।
  • दरभंगा से मधुबनी जाने वाली बस पकड़ें।
  • मधुबनी से बेनीपट्टी के लिए लोकल बस या शेयर ऑटो लें।
  • बेनीपट्टी से उचैठा के लिए स्थानीय साधन (ऑटो/रिक्शा) उपलब्ध होते हैं।

3. ट्रेन से:

  • दरभंगा जंक्शन से मधुबनी के लिए ट्रेन लें।
  • मधुबनी स्टेशन से बेनीपट्टी के लिए ऑटो या टैक्सी उपलब्ध हैं।
  • बेनीपट्टी से उचैठा के लिए लोकल ऑटो लें।

जय माँ दुर्गा!

उच्चैठ भगवती – साभार – प्रॊ. शिव चन्द्र झा shiv.chandra@themithila.com

लेखक जाने माने संस्कृत भाषा के विद्वान हैंं, तथा दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के सेवानिवृत व्याख्याता हैं ।

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Prof Of Dharma Shastra In KSDSU Darbhanga . Has A Over 40 Year Experience In Teaching and also done research in Maithili. Able to read pandulipi
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